जय श्री कृष्णा
मनुष्य अपने को पशुओं की निम्न कोटि से ऊपर , तर्क संपन्न बुद्धि का प्राणी मानते हुए अपने आप पर गर्व करता है। तथापि , ऐसा प्रतीत होता है कि जब वह अपने लाभ हेतु प्रकृति के रहस्यों को खोजने के लिए अपनी तर्कपूर्ण बुद्धि का प्रयोग करता है , तो वह जटिल समस्याओं की दलदल में और गहरा फँसता जाता है। आन्तरिक - ज्वलन - इंजन हम जहाँ जाना चाहते है , वहाँ हमे तेजी से ले जाता है , किन्तु यह वायु - प्रदूषण , पौधशाला पर दुष्प्रभाव तथा तेल पर निर्भरता के संकट का भी कारण बन जाता है। परमाणु के उपयोग से हमें सस्ती ऊर्जा तो मिलती है , किन्तु यह हमें जनसंहार के अस्त्र - शस्त्रों के उत्पादन , चेरनोबिल तथा संकटपूर्ण रेडियोधर्मी कूड़े - कर्कट की उठती लहर की ओर भी धकेलता है। आधुनिक कृषि - उद्योग सुपरमार्केट में अन्न की प्रचुरता और भौचक्का कर देने वाली विविधता तो उत्पन्न करता है , किन्तु यह पारिवारिक खेती की समाप्ति , भूमिगत जल के प्रदूषण , धरातल की बहुमूल्य मृदा के नाश तथा अन्य अनेक समस्याओं को जन्म देता है।
यह स्पष्ट है कि हम प्रकृति के नियमों को अपने खुद के लाभ के निमित्त कार्यान्वित करने के प्रयासों में किसी चीज का अभाव अनुभव कर रहे है। वह "चीज" क्या है ? हम प्राचीन भारतीय ज्ञान - ग्रंथों में उपनिषद नाम से प्रचलित ग्रंथों में सर्वोपरि ग्रन्थ , ईशोपनिषद के सर्व - प्रथम मन्त्र में पाते है कि "इस सृष्टि में प्रत्येक पदार्थ पर भगवान का स्वामित्त्व है और उन्ही के द्वारा नियंत्रित भी है। अतः मनुष्य को अपने लिए केवल उन्हीं वस्तुओं को अपनाना चाहिए , जो उसके लिए आवश्यक हो और उसके भाग के रूप में पृथक रखी गई हों और यह भलीभाँति जानते हुए कि अन्य वस्तुएँ किसके निमित्त हैं , उसे उन्हें स्वीकार नहीं करना चाहिए। "
प्रकृति में हम इस सिद्धांत को प्रचलन में देखते है। भगवान् द्वारा निर्मित प्रकृति की व्यवस्था पशु - पक्षियों का पालन करती है : हाथी प्रतिदिन 50 किलो भोजन खाता है , चींटी अन्न के कुछ दाने ही खाती है। यदि मनुष्य इसे हस्तक्षेप न करे , तो प्राकृतिक संतुलन सभी जीव - जंतुओं को बनाए रखता है।
कोई भी कृषि विशेषज्ञ आपको बताएगा कि धरती इतना अन्न उपजा सकती है , जो वर्तमान जन - संख्या के दस गुणा लोगों के भोजन के लिए पर्याप्त हो। किन्तु राजनीतिक षड्यंत्र और लड़ाइयां , भूमि का पक्षपात - पूर्ण आबंटन , अन्न के बजाय तम्बाकू , चाय और कॉफ़ी जैसी नकद फसलों का उत्पादन तथा दुरूपयोग के फलस्वरूप होने वाले क्षरण के कारण संयुक्त राज्य जैसे समृद्ध देशों में भी लाखों लोग भूखे रह जाते है।
हमें प्रकृति के नियमों को परमेश्वर के दृष्टिकोण से समझना चाहिए , जिन्होंने इन नियमों को रचा है। उनकी दृढती में पृथ्वी के सभी निवासी - चाहे वे जल , थल अथवा आकाश में रहने वाले जीव क्यों न हों - सब उनके पुत्र - पुत्रियाँ है। इसके बावजूद हम मानव जो उनके "सर्वाधिक उन्नत" प्राणी है , इन पुत्र - पुत्रियों के साथ अत्यंत निर्दयतापूर्ण व्यव्हार करते है , जिसमे पशु - हत्या की प्रथा से लेकर वर्षा - वनों का विनाश सम्मिलित है। तो इसमें क्या आश्चर्य हो सकता है , यदि हमें युद्ध , महामारी , दुर्भिक्ष जैसी अनवरत रूप से घटने वाली प्राकृतिक आपदाओं को भोगना पड़ रहा हो ?
हमारी समस्या की जड़ है : अन्य किसी के अधिकारों को ध्यान में रखे बिना अपनी इन्द्रियतृप्ति की इच्छा। ये अधिकार हैं पिता के संबंध में जैसे शिशु के अधिकार। हर बच्चे को पिता की सम्पदा में हिस्सा पाने का अधिकार होता है। इस प्रकार संसार में सभी प्राणियों में भ्रातृत्व - भावना को उत्पन्न करना इस बात पर निर्भर करता है कि भगवान को जगत के पिता समझे जाएँ।
जैसा हमने देखा है , वैदिक वाङ्मय इस बात की घोषणा करता है कि परम भगवान ही अखिल सृष्टि के स्वामी एवं नियंत्रक है। उनकी अनुमति के बिना एक पत्ता तक नहीं हिलता। वे सर्वेसर्वा है। तब हमारी स्थिति क्या है ? इसका भी उत्तर हमें वैदिक वाङ्मय में मिलता है - हमारी स्वाभाविक , वैधानिक भूमिका भगवान की सेवा करना है। वे परम भोक्ता हैं और हमारा कार्य है उनकी सेवा के माध्यम से उनके आनंद में भागीदार बनना , न कि उनसे अलग रह कर भोग करने का प्रयास करना। वे सर्वशक्तिमान है , अतः पूर्णतः स्वतंत्र है। हमारी सूक्ष्म स्वतंत्रता उनकी पूर्ण स्वतंत्रता की नगण्य छाया - मात्र है। इसी क्षुद्र स्वतंत्रता का दुरूपयोग और उनसे अलग रहकर भोक्ता बनने का हमारा प्रयास ही हमारे वर्तमान संकट का कारण है।
हम अपनी स्वतंत्रता का दुरूपयोग क्यों करते है ? क्योंकि हम अपनी वास्तविक स्थिति से अनजान है। वैदिक वाङ्मय की प्रथम सीख यह है कि हम शरीर नहीं , अपितु आत्मा है - जो शरीर के भीतर चेतना के एक सूक्ष्म अंश - रूप में रहता है और इसे गतिमान रखता है। यह ठीक उस तरह है जैसे कार एक यंत्र है , जो किसी चालक को बिंदु 'क' से बिंदु 'ख' तक यात्रा करने की सुविधा प्रदान करती है ; उसी प्रकार हमारा शरीर एक यंत्र है जो जीवात्मा को भगवान की भौतिक प्रकृति के दायरे में कार्य करने तथा अनुभूतियों एवं विचारों का अनुभव करने देता है। जब हमें सर्वोपरि आत्मा , भगवान के अंश अर्थात आध्यात्मिक जीव के रूप में अपनी वास्तविक पहचान हो जाती है , तो हमें यह विदित हो जाता है कि हम भगवान की सेवा के निमित्त है ठीक उसी तरह जैसे हाथ - पाँव सारे शरीर की सेवा के लिए होते है।
किन्तु हमारी समस्या यह है कि हम शरीर से पृथक अपनी पहचान को भूल जाते है और उल्टे अपने को उसके साथ गलत रूप से एकाकार समझ लेते है। यदि कोई मनुष्य अमरीका में जन्म लेता है , तो वह अपने आपको अमरीकन मानता है ; यदि वह फ्राँस में जन्म लेता है , तो वह अपने को फ्रांसीसी मानता है , इत्यादि। हम अपनी पहचान लिंग , नस्ल , जाति , सामाजिक पद आदि के अनुसार भी मानते है ; किन्तु ये सब गुण केवल शरीर को लागू होते है, इत्यादि आत्मा को नहीं। अतः इनसे अपनी सही पहचान के रूप में चिपके रहना हमारे लिए भगवान को तथा उनसे अपने संबंध को भूल जाने का कारण बन जाता है , जिससे हम स्वयं को भगवान की भौतिक प्रकृति का स्वतंत्र भोक्ता मानने लग जाते है।
वैदिक वाङ्मय प्रतिपादित करता है कि मानव की गतिविधि जब भगवान् की सेवा से रहित होती है , तब वह एक सूक्ष्म सिद्धांत पर नियंत्रित रहती है , जिसे कर्म का सिद्धांत कहा जाता है। यह कर्म एवं फल का सुपरिचित सिद्धांत है , क्योंकि यह इस बात से सम्बंधित है कि हम संसार में क्या करते है और परिणाम - स्वरुप सुख अथवा दुःख का अनुभव करते है। और यदि मैं किसी अन्य प्राणी को कष्ट दूँ , तो जीवन - चक्र के घूमने पर निश्चित रूप से मुझे भी वैसा ही कष्ट भोगने पर बाध्य होना पड़ेगा। यदि मैं किसी को सुख पहुँचाऊँ , तो वैसा ही सुख मेरी प्रतीक्षा करेगा। प्रतिक्षण प्रत्येक श्वास के साथ साथ , इस भौतिक संसार में हमारी गतिविधियाँ सुख - दुःख का कारण बनती है। इन अंतहीन कर्मों तथा उनके फलों के क्रम को संभव बनाने हेतु एक जीवन से अधिक जीवनों की आवश्यकता रहती है। इसके लिए पुनर्जन्म लेना पड़ेगा।
पुनर्जन्म का सिद्धांत जबकि भारत में तथा अन्य पूर्वी देशों में सार्वभौमिक रूप से माना जाता है , पाश्चात्य देशों में भी इस विचार के मानने वाले कुछ मिलते है। सदियों पूर्व गिरिजाघरों ने पुनर्जन्म के दर्शन पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। यह एक लम्बी कहानी है जिसकी तिथि सन 300 ईस्वी और 600 ईस्वी के मध्य प्रारंभिक ईसाई धर्म के इतिहास जितनी पुरानी है।
तथापि पिछले दशक में या इसके आस - पास , पश्चिम के बहुत से विचारक पुनर्जन्म की धारणा को गंभीरता से लेने लगे है। उदाहरण के तौर पर , इमोरी यूनिवर्सिटी मेडिकल स्कूल के डॉ माईकल सबोम ने Recollections of Death : A Medical Investigation (1982) नामक एक पुस्तक लिखी है , जिसमें उन्होंने अपने इस अध्यन की व्याख्या की है , जो हृदय रोग से पीड़ित रोगियों के शरीर - बाह्य अनुभवों की पुष्टि करता है। सबोम लिखते है , "जो मन भौतिक मष्तिष्क से पृथक हो जाता है , क्या वह निश्चित रूप से आत्मा हो सकता है , जिसका अस्तित्व कतिपय धार्मिक सिद्धांतों के अनुसार , अंतिम रूप से शारीरिक मृत्यु हो जाने के पश्चात भी बना रहता है ?"
वर्जीनिया विश्वविद्यालय के मनोविज्ञानी डॉ इयान स्टीवनसन ने भी इसी तरह अपनी पुस्तक "Twenty Cases Suggestive Of Reincarnation (1966)" में नन्हें बालकों के विगत - जीवन की स्मृतियों को प्रलेखित किया है और प्रमाणित किया है। अन्य अध्यनों से जिनमें सम्मोहन - विद्या द्वारा प्रतिगमन जैसे साधनों का आश्रय लिया गया है , यह संकेत मिलता है कि पुनर्जन्म की धारणा शीघ्र ही पश्चिम की मुख्यधारा के विज्ञानियों में स्वीकृति प्राप्त कर सकती है।
वैदिक वाङ्मय मनुष्य की नियति की व्याख्या में आत्मा के पुनर्जन्म को एक प्रमुख लक्षण मानता है। और जब हम निम्नलिखित प्रकार के किसी सरल प्रश्न पर विचार करते है , तो यह तर्क स्पष्ट हो जाता है : कोई शिशु संयुक्त राज्य में धनाढ्य माता - पिता के यहाँ उत्पन्न होता है तो कोई दूसरा शिशु इथियोपिया में भुखमरी से पीड़ित किसानों के यहाँ क्यों उत्पन्न होता है ? पाप और पुण्य का फल अनेक जन्मों तक भोगना पड़ता है - कर्म और पुनर्जन्म का यह सिद्धांत ही इस प्रश्न का आसान उत्तर दे सकता है।