कर्म बंधनों को तोड़ना - How To Break Law Of Karma ?

 कर्म बंधनों को तोडना - प्रकृति के नियम

Break Law Of Karma in Hindi - How To Break Law Of Karma ?

बद्धजीव में हम पग - पग पर बिना जाने भी पाप कर रहे है। अनजाने पाप करने का कारण यह है कि हम जन्म से ही अज्ञान में रहे है। यह अज्ञान इतने सारे शिक्षा संस्थानों के होते हुए भी विद्यमान है। क्यों ? क्योंकि इतने सारे बड़े बड़े विश्वविद्यालयों के होते हुए भी इनमे से किसी में आत्मतत्त्व - आत्मा के विज्ञान की शिक्षा नहीं दी जाती। इसलिए लोग अज्ञान में पड़े रहते है और पाप करते रहते है तथा उनके फल भोगते है। इसका वर्णन श्रीमद्भागवत (5. 5. 3) में हुआ है -
पराभवस्तावदबोध जातो यावन्न जिज्ञासत आत्मतत्त्वं। यह मूर्खता तब तक चलती रहेगी , जब तक मनुष्य आत्म - साक्षात्कार को समझने के स्तर तक नहीं पहुँच जाता। अन्यथा ये सारे संस्थान , जो विद्या - दान के लिए है , उसी अज्ञान तथा मूर्खता को चालू रखे रहेंगे। जब  तक कोई यह नहीं पूछता कि , "मै क्या हूँ ? ईश्वर क्या है ? यह जगत क्या है ? ईश्वर तथा इस जगत के साथ मेरा सम्बन्ध क्या है ?" और जब तक उचित उत्तर नहीं पा लेता , तब तक वह पशु के समान नासमझ बना रहता है और उसे विभिन्न योनियों में देहान्तरण करना पड़ता है। यही अज्ञान का परिणाम है। 

अतः आधुनिक सभ्यता बड़ी जोखिमपूर्ण है। कोई भले ही अपने को सफल व्यापारी या राजनीतिज्ञ सोच कर आराम - महसूस कर ले या अमरीका जैसे धनी राष्ट्र में पैदा होने से अपने को सुखी अनुभव कर ले , किन्तु जीवन के ये पद अस्थायी हैं। उन्हें बदलना पड़ेगा और हम यह नहीं जानते कि हमारे पापकर्मों के कारण हमें अगले जीवन में कैसे कष्ट भोगने पड़ेंगे। अतः यदि इस दिव्य ज्ञान के अनुशीलन की शुरुआत नहीं की जाती , तो मनुष्य का जीवन अत्यंत भयावह हो जाता है। मान लीजिए कि एक स्वस्थ व्यक्ति किसी प्रदूषित स्थान में रह रहा है। तो क्या उसका जीवन खतरे में नहीं है ? वह किसी भी क्षण रोग - ग्रस्त हो  सकता है। इसलिए हमें दिव्य ज्ञान के अनुशीलन द्वारा अपने अज्ञान को मिटाने के लिए प्रयास करना चाहिए। 

हम अनजाने में किस तरह पाप करते है , इसका एक अच्छा उदाहरण भोजन करने में है। भगवद्गीता (3. 13) में कृष्ण कहते है कि उनके भक्त पापों से मुक्त हो जाते है , क्योंकि वे कृष्ण को अर्पित भोजन का बचा - खुचा ही खाते है। किन्तु वे कहते है कि जो लोग केवल अपने ही लिए भोजन पकाते है , वे केवल पाप खाते है। इस मंदिर में तथा किसी सामान्य घर में भोजन बनाने तथा खाने में अंतर यह है कि हमारा भोजन बनाना तथा भोजन करना हमें पापों से छुड़ाता है , जबकि अभक्त का भोजन बनाना तथा भोजन करना उसे पापों में अधिकाधिक फँसाता है। दोनों जगह भोजन बनाना तथा भोजन करना एकसा प्रतीत होता है , किन्तु दोनों में अंतर है। यहाँ कोई पाप नहीं होता , क्योंकि भोजन कृष्ण के लिए बनाया तथा खाया जाता है। 

कृष्णभावनामृत कार्यों के क्षेत्र से बाहर किया जाने वाला कोई भी कर्म आपको प्रकृति के गुणों में बाँधने वाला होता है। सामान्यतया आपको पापकर्मों में फँसाया जाता है। जो लोग थोड़े सतर्क रहते है , वे पापकर्मों से बचते है और पुण्यकर्मों करते है। किन्तु जो पुण्यकर्म करता है , वह भी उलझता है। यदि मनुष्य पुण्यात्मा है , तो वह किसी धनी या राजसी परिवार में जन्म पा सकता है या वह अति सुन्दर हो सकता है या अत्यंत विद्वान बनने का अवसर पा सकता है। ये पुण्यकर्मों के फल है। किन्तु आप पुण्यात्मा हों या पापी , आपको किसी न किसी माता के गर्भ में प्रवेश करना पड़ता है और यह यातना बहुत कठोर होती है। इसे हम भूल चुके है। आप चाहे अत्यंत धनवान तथा राजसी कुल में जन्म लें या किसी पशु के गर्भ में जन्म लें , जन्म , जरा , रोग तथा मृत्यु की पीड़ा तो उठानी  ही होगी। 

कृष्णभावनामृत आंदोलन आपको जन्म , मृत्यु , जरा , तथा व्याधि - इन चार समस्याओं के निवारण का अवसर प्रदान करने के निमित्त है। किन्तु यदि आप पापकर्म करते जाएं और पाप की रोटी खाते रहें , तो ये कष्ट जैसे के तैसे बने रहेंगे। अन्यथा आप कृष्ण की शरण में जाकर अपने पापफलों को निर्मूल कर सकते है , जैसा कि भगवद्गीता (18. 66) में कृष्ण स्वयं कहते है , "अपने तथाकथित सभी धार्मिक कृत्यों को त्याग दो और मेरी शरण में आ जाओ। मैं तुम्हारे सारे पापफलों से तुम्हें बचा लूँगा। " कृष्ण के शरणागत होने का एक अंश यह है कि ऐसी कोई वस्तु न खाई जाए , जो उन्हें अर्पित न की गई हो। ऐसा हमारा संकल्प होना चाहिए। यदि हमने कुछ पाप किया भी हो , तो हम प्रसाद खाकर उसका प्रायश्चित कर लेंगे। यदि हम इस तरह से कृष्ण की शरण लें , तो वे हमारे पापफलों से हमें बचाएँगे। यह उनका वादा है। 

और ऐसा शरणागत भक्त मृत्यु के समय कहाँ जाता है ? क्या वह समाप्त हो जाता है , जैसा कि शून्यवादी कहते है ? नहीं।  कृष्ण कहते है - मामेति  - "वह मेरे पास आता है।" और वहाँ जाने का लाभ क्या होता है ? मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयम आशाश्वतं नाप्नुवन्ति - "जो मेरे पास वापस आ जाता है , उसे इस दुःखी भौतिक संसार में लौटना नहीं पड़ता। " यही सर्वोच्च सिद्धि है। 

ईशोपनिषद कहती है , "आत्महंता चाहे वह जो कोई भी हो , उसे अंधकार तथा अज्ञान से पूर्ण श्राद्धविहीनों के लोकों में प्रवेश करना होता है। " कृष्ण असुरों के लिए सिंह तथा भक्तों के लिए मेमना है। नास्तिक कहते है , "हमने कृष्ण को नहीं देखा है।" हाँ , तुम कृष्ण को देखोगे - मृत्यु के समय - जब वे अंततः तुम्हे बंदी बनाने आएँगे तो तुम उन्हें मृत्यु के सिंह के रूप में देखोगे , "ओ !" नास्तिक कृष्ण को मृत्यु रूप में देखता है। और आस्तिक या भक्त कृष्ण को अपने प्रेमी के रूप में , मेमने के समान विनम्र देखता है। 

वस्तुतः हर व्यक्ति कृष्ण की सेवा में लगा रहता है , चाहे प्रेमवश हो या बाध्यतावश। जो भौतिक जीवन में फँसा हुआ है , वह कृष्ण की सेवा में संलग्न है , क्योंकि उसे कृष्ण की बहिरंगा भौतिक शक्ति की सेवा करने के लिए बाध्य किया गया है। यह वैसा ही है , जैसा कि हम किसी राज्य के नागरिकों के साथ होता देखते  है - कोई चाहे नियमपालक नागरिक हो या अपराधी , वह राज्य के अधीन ही होता है। अपराधी यह कह सकता है कि उसे राज्य की परवाह  नहीं है , किन्तु तब पुलिस उसे बंदी बनाकर राज्य की सत्ता स्वीकार करने पर विवश कर देगी। 

इसलिए कोई चाहे चैतन्य महाप्रभु के इस दर्शन को माने या ठुकराए कि हर जीव कृष्ण का नित्य सेवक है , वह उनका सेवक बना रहता है। अंतर केवल इतना ही होता है कि नास्तिक से कृष्ण को उसके स्वामी के रूप में मानने के लिए बाध्य किया जाता है और भक्त स्वेछा से उनकी सेवा करता है। यह कृष्णभावनामृत आंदोलन लोगों को यह शिक्षा देता है कि वे ईश्वर के नित्य दास है और उन्हें स्वेछा से उनकी सेवा करनी चाहिए - "तुम यह झूठा दावा न करो कि तुम ईश्वर हो। अरे , क्या तुम ईश्वर की परवाह नहीं करते ? तुम्हें करनी पड़ेगी। " महान असुर हिरण्यकशिपु ने भी ईश्वर की परवाह नहीं की थी , अतः ईश्वर ने आकर उसे मार डाला। नास्तिक को ईश्वर मृत्यु रूप में दिखते है , किन्तु आस्तिक को प्रेमी को रूप में। यही अंतर है। 

यदि आप भक्त है और आध्यात्मिक जीवन के इस दर्शन को समझते है , तो फिर आप चाहें क्षण भर जीवित रहें या एक सौ वर्ष - इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। अन्यथा जीवित रहने से क्या लाभ ?कुछ वृक्ष पाँच सौ या पाँच हजार वर्ष तक जीवित रहते है , किन्तु उच्चतर चेतना से विहीन ऐसे जीवन से क्या लाभ ?

यदि आप जानते है कि आप कृष्ण के सेवक है और प्रत्येक वस्तु कृष्ण की है , तो आप सैकड़ों वर्ष अपना कार्य करते हुए जीवित रह सकते है और कोई कर्म - बंधन का फल नहीं होगा। इसकी पुष्टि भगवद्गीता (3. 9) में की गई है - यज्ञार्थत कर्मणोन्यत्र लोकोयं कर्मबन्धनः - "कृष्ण के लिए किये गए कर्म के अतिरिक्त कोई भी कर्म , चाहे वह अच्छा हो या बुरा , इस भौतिक जगत से बाँधने वाला है।" यदि आप अच्छा कर्म करते है , तो आपको अगले जन्म में तथाकथित सुख प्राप्त होगा , किन्तु फिर भी आप जन्म - मृत्यु के चक्र में बंधे रहेंगे। यदि आप दुष्कर्म करेंगे , तो आपको पापफल भोगने होंगे और जन्म - मृत्यु के चक्र में बंधे रहना पड़ेगा। किन्तु यदि आप कृष्ण के लिए कर्म करते है , तो अच्छा या बुरा कोई फल नहीं मिलता और मृत्यु के समय आप कृष्ण के पास लौट जाएँगे। कर्मबन्धनों को तोड़ने का एकमात्र यही उपाय है। 

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