नियंता एवं सर्वेश्वर कृष्ण - Controller and the Lord Of Lord : Shri Krishna

 नियंता एवं सर्वेश्वर कृष्ण - प्रकृति के नियम

Lord Krishna Virat Roop - Laws Of Nature
Lord Krishna - Virat Swarup

नमस्कार मित्रों ! अभी तक हमने ईश्वर, कर्म के नियम तथा कर्म बंधनों को कैसे तोड़ा जाए , जानने की कोशिश की है। आज हम ये जानने तथा समझने की कोशिश करेंगे कि कैसे भगवान कृष्ण नियंत्रित तथा सभी देवों के देव है। 

ईशोपनिषद  में ईश  शब्द का उपयोग  पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का वर्णन करने के लिए हुआ है। ईश का अर्थ है "नियंता।" आप अपने को नियंत्रित मानते है या नहीं ? क्या इस ब्रह्माण्ड में कही भी कोई ऐसा व्यक्ति है जो नियंत्रित न हो ? क्या कोई कह सकता है कि "मैं नियंत्रित नहीं हूँ" ऐसा कोई नहीं कह सकता। अतः यदि आप नियंत्रित है , तो फिर आप यह क्यों घोषित करते है , "मैं नियंत्रित नहीं हूँ। मैं स्वतंत्र हूँ। मैं ईश्वर हूँ। यह बकवास क्यों ? मायावादी निर्विशेषवादी दावा करते है , "मैं ईश्वर हूँ , तुम ईश्वर हो , हर व्यक्ति ईश्वर है। " किन्तु यदि वे नियंत्रित है , तो फिर वे ईश्वर किस तरह हो सकते है ? क्या इसका कोई अर्थ है ? ईश्वर कभी भी नियंत्रित नहीं होते। वे परम नियंता या नियामक है। अतः यदि कोई नियंत्रित है , तो हमें तुरंत यह जान लेना चाहिए कि वह ईश्वर नहीं है। 

निस्संदेह , कुछ धूर्त दावा करते है कि वे नियंत्रित नहीं है। मैं ऐसे एक धूर्त को जानता हूँ जिसने एक संघ बना रखा है और जो प्रचार करता है , "मैं ईश्वर हूँ।" लेकिन एक दिन मैंने देखा कि उसके दाँत में दर्द है और वह कराह रहा है , "उह !" अतः मैंने उससे पूछा , "तुम दावा करते हो कि तुम ईश्वर हो , परम नियंता हो , किन्तु इस समय तुम दाँत के दर्द के नियंत्रण में हो। तुम किस तरह के ईश्वर हो ?" अतः यदि आप ऐसे किसी व्यक्ति को देखें , जो अपने को ईश्वर मानता हो या यह मानता हो कि हर व्यक्ति ईश्वर है , तो तुरंत जान लें कि ऐसा व्यक्ति अव्वल दर्जे का धूर्त है। 

लेकिन कहने का मतलब यह नहीं कि जीव कुछ हद तक नियामक नहीं है। भगवद्गीता में भगवान कृष्ण कहते है कि सारे जीव उनकी उच्चतर शक्ति है। ये जीव उच्चतर शक्ति क्यों है ? क्योंकि वे चेतन है जबकि भौतिक शक्ति ऐसी नहीं है। इसलिए जीव कुछ हद तक भौतिक शक्ति को नियंत्रित कर सकते है। उदाहरणार्थ , इस मंदिर की सारी साज - सामग्री पदार्थ से - पृथ्वी , जल , अग्नि तथा वायु से बनाई गई है। किन्तु वह कोई जीव ही था जिसने भौतिक शक्ति को कृष्ण की पूजा करने के हेतु इस साज - सामग्री में ढ़ाला। दूसरा उदाहरण है - यूरोप से लोगों के आने के पूर्व अमरीका की यह भूमि अधिकांश निर्जन थी। इसके पूर्व जो लोग यहाँ रह रहे थे , उन्होंने इसका पूर्ण दोहन नहीं किया था। किन्तु यूरोप वालों ने आकर सड़कों और बड़े - बड़े उद्योगों के साथ इसे एक विकसित देश बना दिया। 

अतः उच्चतर शक्ति अर्थात जीव भौतिक शक्ति पर कुछ नियंत्रण रख सकते है। इसकी व्याख्या कृष्ण ने भगवद्गीता (7.5) में की है - ययेदं धार्यते जगत।  इस भौतिक जगत की महत्ता जीवों के कारण है। लास एंजिलिस , न्यूयॉर्क या लन्दन जैसे विशाल शहरों का महत्त्व तब तक है , जब तक इसमें जीव - आत्मा - है। इसलिए आत्मा पदार्थ से श्रेष्ठ है। लेकिन इस श्रेष्ठता का दुरूपयोग इन्द्रिय - तृप्ति हेतु पदार्थ का शोषण करने में हो रहा है। यही बद्धजीवन है। हम यह भूल चुके है कि यद्यपि हम पदार्थ से श्रेष्ठ है , फिर भी हम ईश्वर के अधीन है। 

आधुनिक सभ्यता के लोग ईश्वर की परवाह नहीं करते , क्योंकि वे अपने को पदार्थ से उत्कृष्ट समझ कर मदांध हो गए है। वे पदार्थ का विभिन्न प्रकारों से दोहन करने मात्र में लगे है। किन्तु वे यह भूल रहे है कि सारे लोग - अमरीकी , रुसी , चीनी , भारतीय - ईश्वर के अधीन है। वे कृष्ण को भूल चुके है और इस भौतिक जगत का भोग करना चाहते है। यही इनका रोग है। 

इसलिए भगवद्भक्त का यह कर्त्वय है कि वह लोगों में कृष्णभावनामृत को जागृत करे। भक्त उन्हें बताता है , "तुम पदार्थ से श्रेष्ठ हो , किन्तु तुम कृष्ण के अधीन हो। अतः तुम्हे पदार्थ का भोग करने का प्रयास नहीं करना चाहिए , प्रत्युत इसका उपयोग कृष्ण के भोग के लिए करना चाहिए।" उदाहरणार्थ , हमने इस मंदिर को अपनी इंद्रिय - तृप्ति के लिए नहीं सजा कर रखा है , अपितु कृष्ण की प्रसन्नता के लिए किया है। तो हममें तथा सामान्य लोगों में क्या अंतर है ? वे अपने - अपने घरों को सुन्दर ढंग से सजा रहे है और हम भी अपने स्थान को सुन्दर ढंग से सजा रहे है , किन्तु प्रयोजन भिन्न - भिन्न हैं। हम इसे कृष्ण के लिए कर रहे है और वे अपने लिए कर रहे है। आप चाहे निजी घर को सजाएँ या कृष्ण - मंदिर को , पदार्थ के ऊपर आपकी श्रेष्ठ्ता बनी रहती है , क्योंकि आप पदार्थ का उपयोग अपने लिए कर रहे है। किन्तु जब आप अपनी बुद्धि को कृष्ण की प्रसन्नता हेतु पदार्थ का उपयोग करने में लगाते है तो आपका जीवन सफल हो जाता है जबकि उसी बुद्धि को अपनी इन्द्रियतृप्ति में लगाने पर आप भौतिक प्रकृति में फँसते जाते है और उलझन महसूस करते है। तब आपको एक के बाद एक शरीर बदलना होता है। 

कृष्ण निकृष्ट शक्ति अर्थात पदार्थ तथा उत्कृष्ट शक्ति अर्थात हम जीवात्मा , दोनों के परम नियंता है। हम कृष्ण की श्रेष्ठ शक्ति हैं , क्योंकि हम भौतिक जगत को नियंत्रित कर सकते है , लेकिन यह नियंत्रण भी आंशिक है। इस भौतिक जगत पर हमारा नियंत्रण केवल सीमित है। किन्तु कृष्ण का हम सबों पर नियंत्रण है ; इसलिए हमारे पास जितना भी नियंत्रण है , वह उनके द्वारा प्रदत्त है। उदाहरणार्थ , मनुष्य ने अपने बुद्धि - बल से इस सुन्दर माइक्रोफोन को तैयार किया है। इसका अर्थ यह हुआ कि वह अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए कुछ हद तक पदार्थ को नियंत्रित कर सका है। किन्तु यह बुद्धि आई कहाँ से ? मनुष्य को यह उत्कृष्ट बुद्धि कृष्ण ने प्रदान की है। भगवद्गीता (15.15) में कृष्ण कहते है - सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिज्ञानर्म अपोहनं च - "मैं हर एक के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति , ज्ञान तथा विस्मृति उत्पन्न होती है।" इसलिए परम नियंता मनुष्य - शरीर के रूप में उत्कृष्ट शक्ति को बुद्धि प्रदान करते है। "इसे करो , अब उसे करो।" यह निर्देश मनमाना नहीं है। मनुष्य पिछले जन्म में कुछ करना चाहता था , किन्तु इस वर्तमान जीवन में वह उसे भूल जाता है ; अतः कृष्ण उसे स्मरण दिलाते है , "तुम यह करना चाहते थे। यह रहा अवसर।" अतः आपके पास उत्कृष्ट बुद्धि होने पर भी उसका नियंत्रण कृष्ण द्वारा किया जाता है। यदि कृष्ण आपको बुद्धि देते है , तो आप इस सुन्दर माइक्रोफोन को बना सकते है ; अन्यथा आप नहीं बना सकते। इसलिए जीवन के हर क्षेत्र में हम कृष्ण द्वारा नियंत्रित होते है। 

हम ब्रह्माण्ड - स्तर पर भी कृष्ण का नियंत्रण देख सकते है। उदाहरणार्थ , यहाँ अनेक विशाल ग्रह हैं ; यह पृथ्वी तो मात्र एक छोटा ग्रह है। फिर भी इस ग्रह पर अटलांटिक तथा प्रशांत सागर जैसे महासागर है और बड़े - बड़े पर्वत तथा गगनचुम्बी इमारतें है। इतने सारे बोझ के बावजूद भी यह पृथ्वी वायु में रुई के फाहे के समान तैर रही है। इसे कौन तैरा रहा है ? क्या आप हवा में बालू के एक कण तक को तैरा सकते है ? आप भले ही पृथ्वी के गुरुत्त्व के नियम तथा अन्य कई बातों की चर्चा करते रहे , किन्तु आप इसे नियंत्रित नहीं कर सकते। आपका हवाई जहाज हवा में उड़ता है , किन्तु जैसे ही पेट्रोल समाप्त हो जाएगा , यह तुरंत गिर पड़ेगा। अतः एक ऐसा जहाज जो हवा में अस्थायी रूप से ही तैर सकता है , यदि उसे बनाने में अनेक वैज्ञानिकों की जरुरत पड़ती है , तो क्या यह संभव है कि यह विशाल पृथ्वी अपने आप ही तैर रही है ? नहीं। भगवान कृष्ण भगवद्गीता (15.13) में घोषित करते है , "मैं भौतिक लोकों में प्रवेश करता हूँ और उन्हें ऊपर तैरने देता हूँ।" जिस तरह हवाई जहाज को उड़ाने के लिए पायलट को उसमें प्रवेश करना पड़ता है , उसी तरह इस पृथ्वी को तैरती रखने के लिए कृष्ण इसके भीतर प्रविष्ट हुए है। यह सहज सच्चाई है। 

हमें कृष्ण से ज्ञान लेना होता है। हमें कृष्ण से या उनके प्रतिनिधि से श्रवण करने के अतिरिक्त ज्ञान प्राप्त करने की किसी अन्य विधि को स्वीकार नहीं करना चाहिए। तब हमें उच्चकोटि का ज्ञान प्राप्त होगा। यदि आपको ऐसा कोई प्राधिकारी मिले जो कृष्ण का प्रतिनिधित्त्व करता हो और जो विषयवस्तु  पर बोल सकता हो और यदि आप उसके द्वारा प्रदत्त ज्ञान को स्वीकार करते है , तो आपका ज्ञान पूर्ण है। ज्ञान प्राप्त करने की समस्त विधियों में से सबसे कम विश्वसनीय विधि प्रत्यक्ष इन्द्रिय अनुभूति की है। मान लीजिये कि कोई पूछता है , "क्या आप मुझे ईश्वर का दर्शन करा सकते है ?" इसका अर्थ यह हुआ कि वह हर  वस्तु को प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करना चाहता है। किन्तु यह ज्ञान प्राप्त करने की निम्न श्रेणी की विधि है , क्योंकि हमारी इन्द्रियाँ अपूर्ण है और हममें त्रुटियाँ करने की सम्भावना है। मान लीजिये कि आपको कुछ स्वर्ण चाहिए, किन्तु आप यह नहीं जानते कि उसे कहाँ से ख़रीदा जाये। अतः आप किसी लोहे के व्यापारी के पास जाकर पूछते है , "क्या  आपके पास सोना है ?" वह तुरंत समझ जाएगा कि आप अव्वल दर्जे के मुर्ख है , क्योंकि आप सोना खरीदने के लिए लोहे की दुकान में आये है। अतः वह आपको ठगने की कोशिश करेगा। वह आपको लोहे का टुकड़ा देकर कहेगा , "यह रहा सोना !" तब आप क्या कहेंगे ? क्या आप उस लोहे को सोना मान लेंगे ? चूँकि आप नहीं जानते कि सोना क्या होता है और उसको खरीदने के लिए आप लोहे की दुकान में गए है , अतः आपको लोहे का टुकड़ा मिलेगा और आप ठग लिए जाएंगे। इसी तरह वे धूर्त जो यह मांग करते है कि उन्हें ईश्वर का दर्शन कराया जाये , यह नहीं जानते कि ईश्वर क्या है , अतः वे अनेक नकली आध्यात्मिक नेताओं द्वारा ठगे जा रहे है , जो यह दावा करते है कि वे ईश्वर है। ऐसा हो रहा है। 

यदि आप सोना खरीदना चाहते है , तो आपके पास सोने के विषय में कम से कम कुछ प्रारंभिक जानकारी होनी चाहिए। इसी तरह यदि आप ईश्वर का दर्शन करना चाहते है , तो पहली आवश्यकता यह है कि आप ईश्वर के कुछ मुलभुत लक्षणों को जानें। अन्यथा यदि आप किसी धूर्त के पास गए और वह अपने को ईश्वर होने का दावा करे और आप उसे ईश्वर मान लें तो आप ठग लिए जाएँगे। 

जब कोई यह कहे कि "मैं ईश्वर को देखना चाहता हूँ " तो हमें जो दूसरा प्रश्न करना चाहिए , वह है "तुम्हारे पास ईश्वर का दर्शन करने की क्या योग्यता है ?" ईश्वर इतने सस्ते नहीं है कि ऐरे - गैरे नत्थू - खैरे उन्हें देख सकें। नही, कृष्णभावनामृत आंदोलन कोई बेहूदी या सस्ती वस्तु प्रस्तुत नहीं करता। यदि आप आमने - सामने ईश्वर का दर्शन करना चाहते है , तो आपको विधि - विधानों का पालन करना होगा। आपको हरे कृष्ण कीर्तन करके अपने को शुद्ध करना होगा। तभी धीरे - धीरे ऐसा समय आएगा , जब आप शुद्ध हो जाएंगे और ईश्वर दर्शन कर सकेंगे। 

तब भी , आप यद्यपि अपनी वर्तमान कलुषित अवस्था में ईश्वर का दर्शन  करने के योग्य नहीं है , वे इतने दयालु है कि वे मंदिर में अपने अर्चाविग्रह के रूप में आपको अपना दर्शन करने की अनुमति देते हैं। उस रूप में उन्हें कोई भी देख सकता है , चाहे वह उसके ईश्वर होने के विषय में जानता हो अथवा नहीं। अर्चाविग्रह एक मूर्ति नहीं है। उनकी दिव्यता कोई कल्पना नहीं है। अर्चाविग्रह को तैयार करने तथा उन्हें वेदी में स्थापित करने का ज्ञान शास्त्र तथा वरिष्ठ आचार्यों या आध्यात्मिक गुरुओं से प्राप्त किया जाता है। अतः मंदिर में प्रामाणिक अर्चाविग्रह स्वयं कृष्ण है और वे आपके प्रेम तथा सेवा का आदान - प्रदान पूर्ण रूप से कर सकते है। 

फिर भी आप अपनी इन कुंठित भौतिक इन्द्रियों से ईश्वर के आध्यात्मिक रूप , नाम , गुण , लीलाओं तथा साज - सामग्री का तुरंत अनुभव नहीं कर सकते। चूँकि वर्तमान सभ्यता में लोगों में न तो ईश्वर को समझने की शक्ति है , न ही उनका मार्गदर्शन कोई ऐसा व्यक्ति करता है , जो उन्हें ईश्वर को समझने में सहायक हो सके , इसलिए वे ईशविहीन हो गये है। किन्तु यदि आप किसी उच्च व्यक्ति के मार्गदर्शन में ईशोपनिषद तथा भगवद्गीता जैसे वैदिक शास्त्रों को पढ़ें और विधि - विधानों का पालन करें, तो अंततः आपको ईश्वर का साक्षात्कार हो जाएगा। आप केवल अपने प्रयास से ईश्वर को देख या समझ नहीं सकते। आपको उस विधि के प्रति समर्पित होना पड़ता है, जिससे ईश्वर को जाना जा सकता है। तब वे अपने आपको प्रकट करेंगे। वे परम नियंता है और आप नियंत्रित हो रहे है। अतः आप ईश्वर को कैसे नियंत्रित कर सकते है ? "हे ईश्वर ! यहाँ आओ। मैं आपको  देखना चाहता हूँ।" ईश्वर इतने सस्ते नहीं है कि वे आपके आदेश से चले आएँगे और आपको दिखने लगेंगे। नहीं , ऐसा संभव नहीं। आपको सदैव स्मरण रखना चाहिए। "ईश्वर परम नियंता हैं और मैं नियंत्रित हूँ। अतः यदि मैं ईश्वर को अपनी सेवा से प्रसन्न कर सकूँ , तो वे मेरे समक्ष प्रकट होंगे।" ईश्वर को जानने की यही विधि है। 

अंततोगत्वा , यह विधि ईश - प्रेम की ओर ले जाती है। यही असली धर्म है। आप चाहे हिन्दू , मुस्लमान या ईसाई धर्म मानने वाले हों , इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। यदि आप में ईश प्रेम विकसित हो रहा है , तो आप अपने धर्म में सही हो। और ईश्वर के प्रति हम किस तरह का प्रेम विकसित करें ? इसमें किसी भी  प्रकार का स्वार्थी उद्देश्य नहीं होना चाहिए। " हे प्रभु ! मैं आपसे प्रेम करता हूँ , क्योंकि आप मुझे अनेक सुन्दर वस्तुएं प्रदान करते है और आप मेरी मांग की पूर्ति करने वाले हैं। नहीं , हमें ईश्वर को इस प्रकार का प्रेम नहीं करना चाहिए। यह आदान - प्रदान पर निर्भर होना चाहिए। 

भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु ने शिक्षा दी है , "हे प्रभु ! आप चाहे मुझे अपने पैरों के नीचे कुचल दें , या मेरा आलिंगन करें या मेरे समक्ष प्रस्तुत न होकर मेरा दिल तोड़ दें , इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। आप कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र है, क्योंकि आप बिना किसी शर्त के मेरे आराध्य देव है।" यह है प्रेम। हमें यही सोचना चाहिए कि , "ईश्वर जो भी चाहें करें , फिर भी मैं उनसे प्रेम करूंगा। मुझे बदले में कुछ नहीं चाहिए।" कृष्ण को ऐसा प्रेम चाहिए। इसीलिए वे गोपियों को इतना चाहते है। गोपियों के प्रेम में ऐसे व्यापारिक आदान - प्रदान का प्रश्न ही नहीं रहता कि , "आप मुझे यह दीजिये , तो मैं आपसे प्रेम करुँगी। " उनक प्रेम शुद्ध , अमिश्रित था जिसमे कोई अवरोध न था। यदि आप ईश्वर से इसी प्रकार का प्रेम करने का प्रयास करें , तो विश्व की कोई भी वस्तु आपको रोक नहीं सकती। बस , आपको अपने में यह उत्सुकता विकसित करनी होगी कि "हे कृष्ण ! मैं आपको चाहता हूँ ," बस। तब फिर उसके रोके जाने का प्रश्न ही नहीं है। आपका प्रेम हर हालत में बढ़ता जाएगा। यदि आप यह अवस्था प्राप्त कर लें , तो आप पूर्ण संतोष का अनुभव करेंगे। ऐसा नहीं है कि ईश्वर अपने लाभ के लिए आपसे प्रेम करवाना चाहते है। यह तो आपके लाभ के लिए है। यदि आप इसके विपरीत करेंगे , तो आप कभी सुखी नहीं हो सकेंगे। 

तो हम आशा करते है कि आपको सर्वेश्वर श्री कृष्ण के बारे ज्ञान प्राप्त हुई होगी। बाकी हम अगले लेख में प्रकृति के नियम को और जानने की कोशिश करेंगे। 

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