ईश्वर तथा उनकी शक्तियाँ - God and their Powers | Laws Of Nature

 प्रकृति के नियम : ईश्वर तथा उनकी शक्तियाँ

ईश्वर तथा उनकी शक्तियाँ - God and their Powers | Laws Of Nature

नमस्कार मित्रों ! आज के इस लेख में हम ईश्वर तथा उनके शक्तियों के बारे में जानने की कोशिश करेंगे। इससे पहले पहले हमने प्रकृति के नियम, ईश्वर तथा कर्म के नियम , कर्म बंधनों को तोडना तथा नियंता एवं सर्वेश्वर कृष्ण के बारे में जाना। तो चलिए फिर कृष्ण की जयकारा लगा के शुरू करते है। जय श्री कृष्णा। 

👉 प्रकृति के नियम

ईशोपनिषद बतलाती है कि हम चेतन या जड़ जो कुछ भी देखते है , वह परमेश्वर द्वारा नियंत्रित है। यही बात भगवद्गीता (1.10) में भगवान कृष्ण कहते है कि उनकी शक्तियाँ सारी वस्तुओं का प्रबंधन करती है। विष्णुपुराण पुष्टि करता है - एकदेशस्थितस्याग्नेज्योर्तस्ना विस्तारिणी यथा - जिस तरह एक स्थान पर रखी अग्नि के चारों ओर ऊष्मा तथा प्रकाश फैलते है , उसी तरह यह सम्पूर्ण सृष्टि भगवान से विस्तीर्ण होने वाली शक्तियों की अभिव्यक्ति है। उदाहरणार्थ , सूर्य एक स्थान पर है , किन्तु यह अपनी ऊष्मा तथा प्रकाश को सारे ब्रह्माण्ड में वितरित कर रहा है। इसी तरह परमेश्वर अपनी भौतिक तथा आध्यात्मिक शक्तियों को सम्पूर्ण सृष्टि में बिखेर रहे है। 

आध्यात्मिक शक्ति इस अस्थायी भौतिक जगत में विद्यमान है , किन्तु यह भौतिक शक्ति से ढकी हुई रहती है। उदाहरणार्थ , सूर्य सदैव आकाश में चमकता है - कोई उसे चमकने से रोक नहीं सकता - किन्तु कभी - कभी यह बादल से आच्छादित हो जाता है। जब ऐसा होता है , तो पृथ्वी पर सूर्यप्रकाश मंद हो जाता है। सूर्य जितना ही आच्छादित रहता है , सूर्य प्रकाश उतना ही मंद हो जाता है। किन्तु सूर्य का यह आच्छादन आंशिक होता है। सम्पूर्ण सूर्यप्रकाश को आच्छादित नहीं किया जा सकता। यह संभव नहीं है। सूर्यप्रकाश का एक नगण्य अंश बादल से आच्छादित हो सकता है। इसी तरह यह भौतिक जगत उस आध्यात्मिक जगत का एक नगण्य अंश है , जो भौतिक शक्ति द्वारा आच्छादित है। 

और वह भौतिक शक्ति क्या है ? यह भौतिक शक्ति आध्यात्मिक शक्ति का एक अन्य रूप है। जब आध्यात्मिक सक्रियता का लोप होता है , तब यह प्रकट होती है। पुनः सूर्य तथा बादल का दृष्टान्त लेते है - बादल क्या है ? यह सूर्यप्रकाश का प्रभाव है। सूर्यप्रकाश से समुद्र का जल भाप बनता है और यह बादल बन जाता है। इस प्रकार सूर्य ही बादल का कारण है। इसी तरह परमेश्वर ही इस भौतिक शक्ति के कारण है , जो उन्हें हमारी दृष्टि से ओझल कर देती है। 

इस तरह इस भौतिक जगत में दो प्रकार की शक्तियाँ कार्य कर रही है - आध्यात्मिक शक्ति तथा भौतिक शक्ति। भौतिक शक्ति में आठ भौतिक तत्त्व निहित है - पृथ्वी , जल , अग्नि , वायु , आकाश , मन , बुद्धि तथा मिथ्या अहंकार। ये स्थूलतर से सूक्ष्मतर के क्रम में व्यवस्थित होते है। जल पृथ्वी से सूक्ष्म है ; अग्नि जल से सूक्ष्म है , इत्यादि। 

इस तरह जो तत्त्व जितना ही अधिक सूक्ष्म है , वह उतना ही अधिक शक्तिशाली है। उदाहरणार्थ , मन की गति से आप एक सेकण्ड में कई हजार मील जा सकते है। किन्तु मन से भी अधिक शक्तिशाली बुद्धि है और बुद्धि से भी अधिक शक्तिशाली आध्यात्मिक शक्ति। यह आध्यात्मिक शक्ति क्या है ? इसका उल्लेख भगवद्गीता (7.5) में कृष्ण द्वारा हुआ है - अपरेयम इतस्तवन्याम प्रकृतिं विद्धि में पराम जीवभूताम - "मेरी निकृष्ट (अपरा) भौतिक शक्ति से , परे दूसरी शक्ति है , जो आध्यात्मिक शक्ति है। इसमें जीवात्माएं सान्निहित है।"

हम सारे जीव भी शक्ति है , किन्तु श्रेष्ठ (परा) शक्ति है। हम श्रेष्ठ किस तरह से है ? क्योंकि हम निकृष्ट शक्ति अर्थात पदार्थ को नियंत्रण में कर सकते है। पदार्थ में अपने आप कार्य करने की शक्ति नहीं होती। एक विशाल हवाई जहाज आकाश में बहुत अच्छी तरह उड़ सकता है , किन्तु जब तक उसमे आध्यात्मिक शक्ति अर्थात चालक न हो , वह व्यर्थ है। जेट जहाज हवाई अड्डे पर हजारों वर्षों तक पड़ा रहेगा ; यह तब नहीं उड़ेगा जब तक आध्यात्मिक शक्ति का छोटा सा अंश अर्थात चालक आकर उसे हाथ नहीं लगाता। तो फिर ईश्वर को समझने में कठिनाई क्या है ? यदि ऐसी अनेकानेक विशाल मशीनें हों , जो आध्यात्मिक शक्ति - जीव - के स्पर्श के बिना हिल - डुल न सकें , तो फिर आप यह किस प्रकार तर्क कर सकते है कि यह सम्पूर्ण भौतिक शक्ति बिना किसी नियंत्रण के स्वतः कार्य करती है ? ऐसा मूर्खतापूर्ण तर्क कौन करेगा ? अतः जो लोग यह नहीं समझ पाते कि यह भौतिक शक्ति परमेश्वर द्वारा किस प्रकार नियंत्रित है , वे अल्प बुद्धिवाले हैं। वे ईशविहीन व्यक्ति जो यह विश्वास करते है कि यह भौतिक शक्ति स्वतः कार्य कर रही है , निरे मुर्ख है। 

ईशोपनिषद का कथन है , "प्रत्येक सजीव या निर्जीव वस्तु पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान द्वारा नियंत्रित है एवं वे ही इसके मालिक है।" चूँकि वे परम नियंता है , अतएव वे परम स्वामी भी है। हम अपने व्यावहारिक अनुभव से देखते है कि जो व्यक्ति व्यापारिक प्रतिष्ठान का नियंत्रण करता है , वही उसका मालिक होता है। इसी तरह , चूँकि ईश्वर इस भौतिक जगत के नियंता है , अतः वे इसके स्वामी भी है। इसका अर्थ यह हुआ कि जहाँ तक संभव हो , हमें हर वस्तु भगवान् की सेवा में लगनी चाहिए।"

तो फिर हमारी निजी आवश्यकताओं का क्या होगा ? इसकी व्याख्या ईशोपनिषद में हुई है , "मनुष्य को चाहिए कि केवल उन्ही वस्तुओं को स्वीकार करे , जो उसके लिए आवश्यक हो और जिन्हे उसके हिस्से के तौर पर नियत किया गया हो। उसे अन्य वस्तुएं स्वीकार नहीं करनी चाहिए , क्योंकि उसे यह अच्छी तरह पता है कि वे किसकी है।" कृष्णभावनामृत का अर्थ है , वस्तुओं को यथारूप में समझना। अतः यदि हम इन सिद्धांतों को समझ लें , तो हम कृष्णभावनामृत में भली भाँति स्थित हो जाएंगे। 

तो मैं आशा करता हूँ कि आप को यह लेख पसंद आया होगा। हम आपसे फिर मिलेंगे एक नए लेख के साथ। तब तक के लिए जय श्री कृष्णा। 

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