ईश्वर तथा कर्म का नियम - God and The Law Of Karma

 प्रकृति के नियम : ईश्वर तथा कर्म का नियम

Law Of Karma and the God in Hindi

वेदों के रूप में प्रचलित विपुल प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में से , 108 उपनिषद दार्शनिक सार से युक्त हैं। और समस्त उपनिषदों में ईशोपनिषद सर्वोपरि मानी जाती है। सन 1968 में श्रील प्रभुपाद द्वारा ईशोपनिषद पर दी गई वार्ताओं पर यह लेख आधारित है। इस लेख में हम परमेश्वर विषयक सत्य , उनके भौतिक तथा आध्यात्मिक शक्तियों को नियमित करने वाले नियमों तथा कर्म के बंधन को तोड़ कर मुक्त होने के विषय में जानकारी प्राप्त करने की कोशिश करेंगे। 

ईशोपनिषद बतलाती है कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान "परिपूर्ण और सम्पूर्ण" हैं। सृजन , पालन तथा संहार की प्रक्रिया भौतिक जगत की उनकी सम्पूर्ण योजना का एक भाग है। इस भौतिक जगत में हर जीव में छह स्थायी अवस्थाओं में परिवर्तन होते है - जन्म , वृद्धि , पालन , उपोत्पादों की उत्पत्ति , ह्यस तथा विनाश। यह भौतिक प्रकृति का नियम है। फूल कली के रूप में जन्मता है ; फिर बढ़ता है ; दो - तीन दिनों तक ताजा बना रहता है ; बीज उत्पन्न करता है ; धीरे  धीरे मुर्झाता है और तब नष्ट हो जाता है। आप इसे अपने तथाकथित भौतिक विज्ञान से नहीं रोक सकते। ऐसा करने का प्रयास करना अविद्या है। 

कभी - कभी लोग मूर्खतावश सोचते हैं कि वैज्ञानिक प्रगति से मनुष्य अमर हो जाएगा। यह बकवास है। आप भौतिक नियमों को रोक नहीं सकते। इसलिए भगवद्गीता  (7.14) में भगवान कृष्ण कहते है कि भौतिक शक्ति दुरत्यया है , अर्थात इसे भौतिक उपायों से जीत पाना असंभव है। 

भौतिक प्रकृति तीन गुणों वाली है। ये हैं - सत्वगुण , रजोगुण तथा तमोगुण। गुण का अन्य अर्थ है "रस्सी" . रेशों को तीन तरह से बट कर रस्सी तैयार की जाती है। सर्वप्रथम रेशे को तीन छोटे तंतुओं में बटा जाता है , फिर ऐसे तीन तंतुओं को एकसाथ बटा जाता है और अंत में ऐसे और तीन को फिर एक साथ बट दिया जाता है। इस तरह रस्सी अत्यंत मजबूत बन जाती है। इसी तरह प्रकृति के तीन गुणों - सतो , रजो तथा तमो - को मिला दिया जाता है जिससे उनसे कोई न कोई उपोत्पाद बनता है। इसके बाद उन्हें पुनः पुनः मिलाया जाता है। इस तरह उन्हें असंख्य बार इकट्ठे "बट"  दिया जाता है। 

इस तरह भौतिक शक्ति आपको अधिकाधिक बाँधती रहती है। आप अपने प्रयासों से इस बंधन से , जो पवर्ग कहलाता है , छूट नहीं सकते। पवर्ग संस्कृत देव - नागरी वर्णमाला में पाँचवाँ वर्ण - समूह है। पवर्ग में प, फ, ब, भ तथा म ये पाँच अक्षर  आते है। 'प' परिश्रम को सूचित करता है। इस जगत में हर जीव अपने उदर पोषण तथा अपना जीवन टिकाए रखने के लिए संघर्ष करता है। यह घोर जीवन - संघर्ष कहलाता है। 'फ' फेन को बताने वाला है। जब घोडा कड़ी मेहनत करता है , तो उसके मुख से झाग (फेन) निकलता है। इसी तरह जब हम कठिन परिश्रम करके थक जाते है तो हमारी जीभ सूख जाती है और हमारे मुँह में झाग बनने लगता है। सारे व्यक्ति इन्द्रियतृप्ति हेतु अत्यधिक श्रम कर रहे है , यहाँ तक कि उनके मुख से झाग निकलने लगता है। 'ब' बंधन के लिए आया है। हम अपने समस्त प्रयासों के बावजूद भी प्रकृति की भौतिक गुण - रूपी रस्सियों से बँधे रहते है। और 'भ' भय को बताता है। भौतिक जीवन में मनुष्य भय की प्रज्ज्वलित अग्नि में जलता रहता है , क्योंकि कोई यह नहीं जानता कि आगे क्या होगा। 'म' मृत्यु का सूचक है। इस जगत में सुख तथा सुरक्षा की हमारी सारी आशाएँ तथा योजनाएँ मृत्यु के द्वारा चौपट हो जाती है। 

इस तरह कृष्णभावनामृत इस पवर्ग विधि को ध्वस्त कर देता है। दूसरे शब्दों में , कृष्णभावनामृत ग्रहण करने पर मनुष्य को अपवर्ग प्राप्त होता है , जिसमे न तो तीव्र जीवन - संघर्ष रहता है , न भौतिक बंधन , न भय और न मृत्यु रहते है। पवर्ग इस भौतिक जगत का लक्षण बताने वाला है , किन्तु जब उसमें 'अ' उपसर्ग जोड़ दिया जाता है तो उसका अर्थ होता है कि पवर्ग ध्वस्त हो गया। हमारा कृष्णभावनामृत आंदोलन अपवर्ग का मार्ग है। 

दुर्भाग्यवश लोग इन बातों को नहीं जानते ; फलतः वे अपना जीवन व्यर्थ गँवा रहे है। यह आधुनिक सभ्यता आत्मा की हत्या करने वाली सभ्यता है। लोग अपनी ही हत्या किये जा रहे है , क्योंकि वे यह नहीं जानते कि असली जीवन क्या है। वे मात्र पशुओं की तरह जी रहे है। पशु यह नहीं जानता कि जीवन क्या है ; फलतः वह क्रमिक विकास करते हुए प्रकृति के नियमों के अधीन कार्य करता रहता है। किन्तु जब आपको यह मनुष्य का जीवन मिल जाता है , तो आपकी जिम्मेदारी भिन्न तरीके से जीवित रहने की हो जाती है। यहीं पर आपको कृष्णभावनामृत बनने का तथा सारी समस्याओं को हल करने का अवसर मिलता है। किन्तु यदि आप ऐसा नहीं करते - यदि आप पशुओं की तरह ही कार्य करते रहते है - तो आपको पुनः जन्म - मृत्यु के चक्र में फिर पड़ कर 8400000 योनियों में से होकर देहान्तर करना पड़ेगा। पुनः मनुष्य - जीवन पाने में लाखों वर्ष लग जाएंगे। उदाहरणार्थ , आप जिस सूर्य - प्रकाश को इस समय देख रहे है , उसे आप चौबीस घंटे के बाद ही दोबारा देख सकेंगे। प्रकृति में हर वस्तु एक चक्र में घूमती है। अतः यदि आप अपने को ऊपर उठाने के इस अवसर को गँवा देते है , तो आपको देहांतरण के चक्र में पुनः प्रवेश करना पड़ेगा। प्रकृति का नियम बड़ा प्रबल है।

कृष्णभावनामृत को तुरंत ही ग्रहण कर लेना आवश्यक है , क्योंकि हम यह नहीं जानते कि मृत्यु आने में कितना समय शेष रह गया है। जब इस शरीर में आपका समय समाप्त हो जाएगा , तो आपकी मृत्यु को कोई नहीं रोक सकता। भौतिक प्रकृति की व्यवस्था इतनी प्रबल है कि आप यह नहीं कह सकते , "मुझे रहने दें।" वस्तुतः लोग कभी कभी ऐसी याचना करते है। जिस समय मैं इलाहाबाद में था तो मेरा एक पुराना मित्र , जो अत्यंत धनी था , मर रहा था। उस समय डॉक्टर को याचना दी , "क्या आप मुझे कम से कम चार वर्ष और जिन्दा नहीं रख सकते ? मैं अपनी कुछ योजनाओं को पूरा नहीं कर पाया। " देखा आपने ! यह है मूर्खता। हर व्यक्ति सोचता है , "मुझे यह करना है , मुझे वह करना है। " किन्तु न तो डॉक्टर न ही विज्ञानी मृत्यु को रोक सकते है : "नहीं महोदय ! चार वर्ष तो क्या चार मिनट भी नहीं। आपको तुरंत जाना है।" यह है नियम। अतः इससे पूर्व कि वह क्षण आए , मनुष्य को कृष्णभावनामृत हो जाना चाहिए। इसके पूर्व कि आपकी अगली मृत्यु आए , आपको अपना कार्य समाप्त कर लेना चाहिए। यही बुद्धिमानी है , अन्यथा आपको हार खानी पड़ेगी। 

ईशोपनिषद बतलाती है कि परम पूर्ण - परमेश्वर से जो भी उद्भूत होता है , वह स्वयं में पूर्ण होता है। इसलिए यदि आप अपने जीवन का लाभ उठाना चाहते है और कृष्णभावनामृत बनना चाहते है , तो इसकी पूरी सुविधा प्राप्त है। लेकिन आपको इसे व्यव्हार - रूप में ग्रहण करने के बिंदु तक आना होगा। कृष्णभावनामृत सैद्धांतिक नहीं , व्यावहारिक है। सारे प्रयोग पहले ही किये जा चुके है। इसलिए , जैसा कि ईशोपनिषद में दर्शाया हुआ है , छोटी छोटी पूर्ण इकाइयों को अर्थात हम सबों को परम पूर्ण कृष्ण की अनुभूति करने के लिए पूर्ण सुविधा है। हम पूर्ण इकाइयाँ है , लेकिन लघु है। उदाहरणार्थ , एक बड़ी मशीन में एक छोटा पेंच होता है , किन्तु इस पेंच की पूर्णता इसमें है कि वह अपने सही स्थान में लगा हो। तभी उसका महत्त्व है। किन्तु यदि वह मशीन से खुल कर फर्श पर गिर जाये , तो उसका कोई महत्त्व नहीं है। इसी तरह जब हम कृष्ण से जुड़े रहते है , तब तक पूर्ण है , अन्यथा हम व्यर्थ है। 

पूर्ण की अनुभूति होने का अर्थ यह अनुभव करना है कि पूर्ण के साथ हमारा सम्बन्ध क्या है। पूर्ण का अपूर्ण ज्ञान होने के कारण ही सभी प्रकार की अपूर्णता का अनुभव किया जाता है। हम सोच रहे है , "मैं ईश्वर के तुल्य हूँ। मैं ईश्वर हूँ। " यह अपूर्ण ज्ञान है। किन्तु यदि आप यह जाने कि "मैं ईश्वर का ही अंश हूँ , अतएव गुण में ईश्वर के तुल्य हूँ।" तो यह पूर्ण ज्ञान है। मनुष्य जीवन जीव की चेतना को पुनरुज्जीवित करने के लिए एक अवसर है। आप कृष्णभावनामृत की विधि से इस पूर्ण चेतना को पुनरुज्जीवित कर सकते है। किन्तु यदि आप इस पूर्ण सुविधा का लाभ नहीं उठाते , तो आप अपने को मार रहे है , आत्महत्या कर रहे है। ईशोपनिषद में कहा गया है , "आत्मा के हन्ता को , वह चाहे जो भी हो , ऐसे लोकों में प्रवेश करना पड़ता है जिन्हे अश्रद्धा , पूर्ण अंधकार तथा अज्ञान का जगत कहा जाता है।" अतः आप अपनी आत्मा के  हत्यारे मत बनिए। आप अपने मनुष्य जीवन की पूर्ण सुविधा का उपयोग कृष्णभावनाभवित बनने में कीजिए। आपका एकमात्र कार्य यही है 

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