मेरे पिताजी
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मेरे पिताजी एक विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर है। इनका दैनिक जीवन बड़ा व्यस्त रहता है - न दिन चैन , न रात आराम। जब देखो तभी व्यस्त। ये रात में भी काफी देर तक पढ़ते - लिखते रहते है। सुबह पाँच बजे उठकर पढ़ते है। आठ बजे तक दैनिक क्रिया - कर्म से निबटकर फिर अध्यन करने बैठ जाते है। इस बीच कोई कुछ कहता या बोलता है , तो इन्हे अच्छा नहीं लगता। मेरी माँ कभी - कभी सोचती है कि इतना अधिक पढ़ लेने और विश्वविद्यालय से अनेक उपाधियाँ पा लेने के बाद भी हर दिन पढ़ने - लिखने की क्या जरुरत है। उन्हें कभी - कभी पिताजी का इतना अधिक अध्ययनरत होना परेशान कर डालता है।
मेरे पिताजी हिंदी के एक अच्छे लेखक है , आलोचक भी है। इनका कहना है कि एक सुयोग्य शिक्षक बनने के लिए नियमित रूप से गहरा अध्यन अत्यंत आवश्यक है। लेखक का जीवन बिताने के लिए यह और भी जरुरी है। ये हर महीने कम - से - कम सौ रूपए की नयी किताबें खरीदते है। इस प्रकार , इनकी निजी पुस्तकालय में पुस्तकों का एक अच्छा - खासा संग्रह तैयार हो गया। ये बड़े मनोयोग से इस घरेलु पुस्तकालय में बैठकर पुस्तकों का अध्यन करते हैं। इनके मित्र इन्हें प्रायः 'किताबी कीड़ा' कहते है और ये हलकी मुस्कुराहट से सब सुनते रहते है।
हिंदी की पत्र - पत्रिकाओं में मेरे पिताजी की प्रकाशित पुस्तकों की समीक्षा देखकर मुझे बड़ी ख़ुशी होती है और मन - ही - मन मैं प्राध्यापक और लेखक बनने की कल्पना से भर जाता हूँ। ये अपना सारा समय पढ़ने - लिखने में बिताते है। ये अपने छात्रों के बीच बड़े लोकप्रिय है। सभी इनकी कर्तव्यपरायणता की प्रशंसा करते है। हिंदी आलोचना के क्षेत्र में इनका बड़ा नाम है। मेरे पड़ोस के अच्छे लोग अक्सर मुझसे कहते है - तुम्हे भी पढ़ - लिखकर अपने पिता की तरह नाम कमाना चाहिए। मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी , यदि मैं अपना यह मीठा सपना जीवन में साकार कर पाऊँ !